साझेदारी का अर्थ
जब दो या दो से अधिक लोग मिलकर के साथ-साथ एक ही फर्म के नाम से व्यापार करते हैं तो उसे साझेदारी व्यापार कहते हैं साझेदारी व्यापार में सभी लोग मिलकर अपने-अपने हिस्से की पूंजी लाते हैं और उसे पूंजी को एक साथ फर्म में लगाकर फर्म के नाम से व्यापार करते हैं तथा सभी लोग अपने-अपने लिए कार्यों को बांटकर पूरी जिम्मेदारी निभाकर कार्य करते हैं इस प्रकार से साझे में किया गया व्यापार साझेदारी कहलाता है व्यापार का सबसे पहला रूप एकाकी व्यापार होता है किंतु एकाकी व्यापार में कम पूंजी तथा कम देखभाल एवं सीमित संसाधन होने के कारण अनेक समस्याएं आती हैं इन समस्याओं को दूर करने के लिए जब दो या दो से अधिक लोग आपस में समझौता करके एक साथ में व्यापार करते हैं इसे साझेदारी व्यापार कहते हैं व्यापार करने वाले सदस्यों को साझेदार कहते हैं अतः लाभ कमाने के उद्देश्य से दो या दो से अधिक लोग मिलकर जो व्यापार करते हैं वही साझेदारी व्यापार कहलाता है |
v परिभाषा
भारतीय साझेदारी अधिनियम के द्वारा :
साझेदारी ऐसे व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध को कहते
हैं जो एक व्यवसाय के लाभ को आपस में बांटने के लिए सहमत हुए हों,तथा यह व्यवसाय सभी व्यक्तियों द्वारा चलाया जाता है |
साझेदारी की
विशेषताएं
दो या दो से अधिक व्यक्तियों के व्यापार को हम
साझेदारी व्यापार कहते हैं इसकी निम्न विशेषताएं हैं |
1 1. दो या दो से अधिक
व्यक्तियों का होना : साझेदारी व्यापार
में दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलकर व्यापार करते हैं सभी लोगों के द्वारा
व्यापार का संचालन किया जाता है |
2. सभी लोगों में
कार्य का बटां होना : साझेदारी व्यापार में सभी साझेदारी अपनी-अपनी योग्यता के
अनुसार कार्य बांट लेते हैं ।
3. सभी साझेदारों द्वारा पूंजी: अधिकांश साझेदारी व्यापारों में यह देखा गया है, कि सभी साझेदारी मिलकर अपनी-अपनी पूंजी व्यापार में लगाते हैं |
4. साझेदारों की अधिकतम संख्या: एक वैध साझेदारी के लिए अधिकतम साझेदारों की संख्या 50 निर्धारित की गई है तथा बैंकिंग साझेदारी में यह संख्या 10 है |
5. आपस में ठहराव: सभी साझेदारों में लंबे समय तक संबंध अच्छे बने रहे इसके
लिए उनमें आपस में लिखित या मौखिक ठहराव होता है |
6. फर्म का नाम: साझेदारी व्यापार करने के लिए एक फर्म बनाई जाती है जिसको
एक नाम दे दिया जाता है |
7.हिसाब किताब का लेखा-जोखा: फर्म के हिसाब किताब को रखने की जिम्मेदारी किसी व्यक्ति या साझेदारी को दे दी जाती है जो स्पष्ट हिसाब किताब रखता है।
8. असीमित दायित्व: असीमित दायित्व से आशय जितनी मात्रा में हानियां नुकसान हो
उसे सभी लोग पूरा ही बहन (झेलेंगे) करेंगे इसमें असीमित दायित्व होता है ।
9. वैध व्यवसाय का
होना: साझेदारी व्यवसाय की यह भी एक प्रमुख विशेषता है कि
फर्म द्वारा अधिकांश वैध व्यवसाय किया जाता है |
10.पंजीकरण ऐच्छिक होना: साझेदारी फर्म का पंजीकरण करना जरूरी नहीं होता यह साझेदारों की इच्छा पर निर्भर करता है ।
11. आपस में विश्वास: सभी साझेदारों में आपसी विश्वास होता है और आपस में विश्वास के आधार पर ही वे सभी लोग व्यापार करते हैं |
12. सभी के द्वारा निर्णय लेना: साझेदारी व्यवसाय में एक व्यक्ति या सदस्य के द्वारा निर्णय नहीं लिया जाता बल्कि सभी लोग मिलकर किसी कार्य को करने या ना करने का निर्णय लेते हैं ।
13. बैंकिंग साझेदारी: बैंकिंग साझेदारी में व्यापार करने के नियमों में सामान्य
से थोड़ा अंतर होता है इसमें अधिकतम साझेदारों की
संख्या 10 होती है |
14. साझेदारी संलेख: साझेदारी करने का लिखित में किया गया समझौता ही साझेदारी
संलेख कहलाता है इसमें सभी शर्तें लिखित में होती हैं |
15. लाभ हानि का
बंटवारा: सभी साझेदार अपनी-अपनी पूंजी के अनुपात में या तय किए
गए अनुपात में लाभ हानि का बंटवारा करते हैं |
16. लाभ कमाने का उद्देश्य: साझेदारी व्यापार का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है लाभ कमाने के लिए ही साझेदारी की जाती है |
v साझेदारी व्यवसाय के लाभ
वर्तमान समय में साझेदारी व्यापार एक महत्वपूर्ण
व्यापार के रूप में है जिसके निम्न लाभ होते हैं |
1. पर्याप्त पूंजी
की व्यवस्था: साझेदारी करने से व्यापार में पर्याप्त पूंजी की
व्यवस्था हो जाती है क्योंकि सभी लोग अपने-अपने पास से पूंजी लगते हैं |
2. प्रबंध करने में
आसानी: साझेदारी व्यवसाय में कोई भी प्रबंध करना हो तो आसानी
से हो जाता है क्योंकि सभी साझेदार मिलकर प्रबंध करते हैं |
3. निर्णय लेने में
आसानी: किसी भी कार्य को करने के लिए सभी लोग आपस में चर्चा
करके निर्णय लेते हैं इससे निर्णय लेने में आसानी रहती है |
4. अधिक ग्राहकों तक
पहुंच: अनेक साझेदारों की जान पहचान के ग्राहक व्यापार से
जुड़ने लगते हैं इससे अधिक ग्राहकों तक पहुंच बनती जाती है |
5. फर्म का अच्छा
संचालन: सभी साझेदारी आपस में मिलकर फर्म को चलते हैं इससे
फर्म का संचालन अच्छा हो जाता है |
6. आसान रूप में
स्थापना: साझेदारी व्यापार को स्थापित करने में कानूनी
कार्यवाही अधिक नहीं होती अतः इसकी स्थापना करना आसान होता है |
7. पंजीकरण अनिवार्य
न होना: साझेदारी फर्म का पंजीकरण कराना जरूरी नहीं होता
साझेदारी अपनी इच्छा से जब तक चाहे बिना पंजीकरण के ही व्यापार चल सकते हैं |
8. लोगों से
व्यक्तिगत संपर्क होना: अधिक साझेदारों
के होने से अनेक लोगों से साझेदारों के व्यक्तिगत संबंध होते हैं इस कारण से साझेदारी
व्यापार अच्छे से संचालित होता है |
9. फर्म के लाभ में
वृद्धि: साझेदारी व्यापार में फर्म का लाभ भी बढ़ जाता है
क्योंकि ग्राहकों की संख्याओं में वृद्धि होती रहती है और क्रय विक्रय बढ़ता है |
10. गोपनीयता बनी
रहना: साझेदारी व्यापार में भी व्यापार की गोपनीयता बनी
रहती है व्यापार करने की सभी अंदर की बातें केवल साझेदारों तक ही सीमित रहती है ।
11. हानी व समस्याओं से मिलकर निपटारा: यह साझेदारी व्यवसाय का सबसे बड़ा लाभ है कि इसमें सभी लोग मिलकर हानि तथा समस्याओं का निपटारा करते है |
साझेदारी व्यवसाय के अनेक लाभ होते हुए भी इसमें कुछ कमियां है जो निम्न है :
1. सीमित पूंजी की मात्रा
2. बंटवारे में कठिनाई
3. आपसी मनमुटाव
4. गोपनीयता में कमी
5. शीघ्र निर्णय में कठिनाई
6. जनता का कम विश्वास
7. बड़े व्यवसाययों
के लिए अनुपयुक्त
8. सीमित प्रबंधन व्यवस्था
साझेदारी व्यापार महत्वपूर्ण होते हुए भी इसमें
उपरोक्त कमियां या दोष वास्तव में देखने को मिलते हैं फिर भी यदि एक योजना के साथ
में स्पष्ट हिसाब किताब रखकर और समय-समय पर विचार विमर्श करके उपरोक्त दोष तथा
हानियों को काफी मात्रा में काम किया जा सकता है
v साझेदारी के प्रकार
साझेदारी व्यापार का एक महत्वपूर्ण स्वरूप है जिसमें
निम्न प्रकार होते हैं :
1. सामान्य साझेदारी
2. विशिष्ट साझेदारी
3. वैध साझेदारी
4. अवैध साझेदारी
5. ऐच्छिक साझेदारी
6. अनिश्चितकालीन
साझेदारी
7. असीमित दायित्व साझेदारी
8. सीमित दायित्व साझेदारी
साझेदारी संलेख
लंबे समय तक अच्छे से साझेदारी व्यापार को चलाने हेतु सभी साझेदारों के बीच में हुए समझौते को जब लेकर और सभी के सहमति से हस्ताक्षर कराकर भविष्य के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है जिससे कभी भी साझेदारों के बीच में आपस मनमुटाव या मतभेदों को आसानी से सुलझाया जा सके तथा सभी शर्तें लिखित में बनी रहें , ऐसे पत्र या कागजों को ही साझेदारी संलेख कहते हैं, अतः साझेदारी संलेख समझौता व्यापार का सबसे महत्वपूर्ण प्रलेख होता है इस प्रलेख के अनुसार ही फर्म आगे आने वाले समय में अपना व्यापार करती है और आने वाली समस्त समस्याओं को इस साझेदारी संलेख की सहायता से दूर किया जाता है ,साझेदारी संलेख में उन सभी बातों का स्पष्टता से उल्लेख होता है जो उसे व्यवसाय को चलाने हेतु अति आवश्यक होती हैं उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट है की साझेदारी व्यवसाय को करने से पूर्व सभी बातों को सोच समझकर साझेदारों द्वारा आपसी सहमति से बनाना चाहिए और सभी शर्तें तैयार करनी चाहिए जिनकी आगे समय-समय पर जरूरत पड़ती रहती है अतः इनको किसी अच्छे कागजों पर लिखकर व हस्ताक्षर कराकर सुरक्षित रख लिया जाता है जो साझेदारी संलेख कहलाता है ।
साझेदारी संलेख के अभाव में लागू होने वाले नियम
यदि साझेदारी संलेख नहीं है तो निम्न नियम लागू होते हैं जिनका वर्णन साझेदारी अधिनियम 1932 की धारा 12 से 17 तक वर्णित है :
1. प्रत्येक साझेदार को मेहनत से व्यवसाय संचालन एवं प्रबंध
में भाग लेने का अधिकार ।
2. आपसी मत भेदों को
बहुमत द्वारा सुलझाया जाएगा |
3. प्रत्येक साझेदार
को फर्म का हिसाब किताब देखने का अधिकार |
4. किसी साझेदार को
लाभ के अतिरिक्त कोई वेतन कमीशन नहीं मिलेगा |
5. फर्म के लाभ हानि को बराबर बांटा जाएगा |
6. किसी भी साझेदार
को पूंजी पर ब्याज देय नहीं होगा |
7. साझेदारी द्वारा
पूंजी से अधिक धन पर 6% वार्षिक ब्याज दिया जाएगा |
8. अचानक संकट आने
पर बचाने हेतु भुगतान का दायित्व फर्म का होगा |
9. साझेदार के आचरण से होने वाली हानि उसे उठानी होगी |
10.व्यापार की विशेष
संपत्तियों पर फर्म का अधिकार रहेगा |
11.फर्म की
संपत्तियों का प्रयोग फर्म के कार्यों हेतु होगा |
12.फर्म के नाम से
कमाया गया अनुचित लाभ फर्म में जमा करना होगा |
13.फर्म के ढांचे
में परिवर्तन सभी की सहमति से होगा |
14.फर्म अपना
कारोबार बढ़ाती है तो सभी के अधिकार तथा कर्तव्य पूर्ववत रहेंगे |
15. प्रत्येक
साझेदारी फॉर्म के कार्यों को बुद्धिमत्ता से करेगा |
16. फर्म की संपत्तियों पर सभी का अधिकार बराबर का होगा |
साझेदारी फर्म के खाते
साझेदारी व्यापार का अथवा फर्म का विधिवत हिसाब किताब रखने हेतु बनाए जाने वाले खाते ही साझेदारी फर्म के खाते कहलाते हैं जो निम्न है
1. फर्म का व्यापार एवं लाभ हानि खाता
2. फर्म का आर्थिक
चिट्ठा
3. लाभ हानि समायोजन
खाता
4. साझेदारों का
पूंजी खाता
5. साझेदारों का आहरण खाता
6. साझेदारों का
ब्याज खाता
7. साझेदारों का ॠण खाता
8. साझेदारों का चालू खाता
फर्म के प्रकार:
1. व्यावसायिक फर्म
2. निर्माणी फर्म
(क) व्यावसायिक फर्म
के प्रमुख खाता
1. व्यापर खाता
2. लाभ हानि खाता
3. लाभ हानि विनियोजन / समायोजन खाता
4. आर्थिक चिट्ठा
(ख) निर्माणी फर्म के
प्रमुख खाते:
1. निर्माणी खाता
2. व्यापर खाता
3. लाभ हानि खाता
4. लाभ हानि समायोजन खाता
5. आर्थिक चिट्ठा
साझेदारों के
पूंजी खाता रखने की विधि
(क) स्थाई पूंजी विधि
: पूंजी खाता , चालू खाता
(ख) परिवर्तनशील
पूंजी विधि : केवल पूंजी खाता होता है
(क) स्थाई पूंजी विधि : इस विधि की सबसे बड़ी विशेषता यह रहती है कि इसमें साझेदारों की पूंजी का शेष स्थाई व सामान रहता है यह शेष बदलता नहीं है इसके लिए दो खाते तैयार किए जाते हैं पूंजी खाता व चालू खाता जब साझेदारों की पूंजी स्थाई रहेगी तो फिर फर्म का होने वाली लाभ - हानि आहरण ,लोन ,ब्याज इत्यादि लिखने हेतु चालू खाते को काम में लाया जाता है जिसका डेबिट या क्रेडिट अथवा NiL बैलेंस हो सकता है
साझेदारी खाते
तैयार करने की सरल विधि :
साझेदारी खातों को तैयार करने की सबसे सरल विधि अपनाने हेतु सभी आवश्यक तैयार किए जाने वाले खातों की जानकारी परम आवश्यक है निम्न खातों को बनाना सीखकर साझेदारी खातों का आसानी से बनाया जा सकता है
1. पूंजी पर ब्याज निकालना
2. पूंजी खाता तैयार करना
3. आहरण खाता तैयार करना
4. ब्याज खाता तैयार करना
5. ऋण खाता तैयार करना
6. चालू खाता तैयार करना
7. लाभ हानि समायोजन खाता बनाना
8. फर्म के अंतिम खाते तैयार करना