मनोविज्ञान की अन्य शाखाओं की भाँति बाल मनोविज्ञान भी बालक के विकास के अध्ययन में कुछ विशिष्ट विधियों का प्रयोग करता है। इनमें से कुछ विधियाँ प्राचीन और कुछ
आधुनिक हैं। प्राचीन विधियाँ अपेक्षाकृत कम वैज्ञानिक तथा आधुनिक अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक हैं।(क) प्राचीन विधियाँ
Ancient Methods
बाल-मनोवैज्ञानिक अध्ययन की प्राचीन विधियों में कहानी-विधि और स्मृति-विधि प्रचलित थीं। इन विधियों का प्रतिपादन प्लेटो, लॉक और रूसो आदि दार्शनिकों ने किया था। प्राचीन काल में इन्हीं दोनों विधियों का बाल-मनोविज्ञान में प्रयोग किया जाता था, लेकिन ये दोनों विधियाँ दोषयुक्त हैं। कहानी-विधि में सबसे प्रमुख दोष यह है कि यह विधि बालकों के केवल यदा-कदा किये गये निरीक्षण पर आधारित है। अतः इस विधि के प्रयोग में अनिरीक्षण का दोष आ जाता है।
इसी प्रकार स्मृति-विधि अध्ययनकर्ता की स्मरण शक्ति पर आधारित है, अतः इस विधि के प्रयोग में अध्ययनकर्ता के आत्मगत चिन्तन की प्रधानता पायी जाती है। परिणामतः इन विधियों पर आधारित निष्कर्ष कभी वैज्ञानिक, सत्य और विश्वसनीय नहीं हो सकते, इसलिये बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन में इन विधियों का प्रयोग वर्तमान में कम हो गया है।
(ख) आधुनिक विधियाँ
Modern Methods
बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन में निम्नलिखित वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता
1. क्रमवद्ध चरित्र लेखन विधि (Anecdotal Method)- इस विधि का प्रतिपादन उन्नीसवीं ( 19 )शताब्दी के मनोवैज्ञानिकों ने किया। इस विधि में अध्ययनकर्ता कुछ बालकों के प्रतिदिन के व्यवहारों का निरीक्षण कर क्रमबद्ध चरित्र लेख तैयार करता है। इस प्रकार तैयार किये गये चरित्र लेख से बाल-जीवन की बहुत-सी विशेषताओं का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार बालकों के क्रमिक विकास तथा उनके भीतर उद्भुत होने वाले शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों का एक समुचित विवरण प्राप्त हो जाता है। बालकों के इन चरित्र लेखों में वर्णित तथ्यों को तुलना भी प्रयोगशाला के तथ्यों से की जा सकती है।
यह विधि भी पूर्णतः दोषमुक्त नहीं है, स्वतन्त्र वातावरण में बालकों का वैसा अध्ययन सम्भव नहीं है, जैसा प्रयोगशाला के नियन्त्रित वातावरण में होता है। इस विधि का प्रयोग प्रायः बालक के माता-पिता ही करते हैं। अतः स्वभावतः उनकी मनोवृत्तियों का वात्सल्य के भावों से प्रभावित हो जाने के कारण इस विधि द्वारा निकाले गये निष्कर्ष पूर्णतः सत्य एवं विश्वसनीय नहीं माने जा सकते। इस विधि के प्रयोग में समय भी अधिक लगता है।
उन्नीसवीं(19) शताब्दी में इस विधि का प्रयोग अनेक बाल-मनोवैज्ञानिकों टेन, डार्विन, प्रेयर, शिन, पूर, मेजर, डियरबॉर्न तथा हाल द्वारा किया गया। फलस्वरूप यह विधि बाल- मनोवैज्ञानिकों में बहुत अधिक लोकप्रिय हो गयी है।
2. आत्मचरित्र-लेखन विधि (Autobiography-writing Method) - इस विधि में अध्ययनकर्ता कुछ व्यक्तियों से स्वयं उनके बाल-जीवन की प्रमुख घटनाएँ लिखने को कहता है और उनका संकलन करता है, अतः स्पष्ट है कि इस विधि में स्मृति से बहुत अधिक कार्य लिया जाता है। प्रत्यक्ष निरीक्षण के स्थान पर समय-समय की घटनाओं और उनसे सम्बन्धित मानसिक स्थितियों की पुनरावृत्ति स्मरण द्वारा की जाती है
और स्मृति प्रतिपन्न होना सदैव सम्भव नहीं। अतः इस विधि द्वारा निकाले गये निष्कर्ष सदैव सत्य नहीं माने जा सकते। उपर्युक्त दोनों विधियों का प्रयोग बड़ी सावधानी से करना चाहिये।
3. प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method)- यह बिधि बाल-मनोविज्ञान अध्ययन की एक अच्छी विधि मानी जाती है। इस विधि के जन्मदाता स्टैनले हाल माने जाते है। इस विधि में अध्ययनकर्ता प्रश्नों की एक लम्बी सूची तैयार करता है। ये प्रश्न बाल-जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित होते हैं। इन प्रश्नों की अनेक प्रतियाँ छपवाकर स्कूलों बालकों, शिक्षकों और अभिभावकों में वितरित कर दी जाती हैं। प्राप्त उत्तरों का विश्लेषण करके सूचना की सत्यता एवं विश्वसनीयता की जाँच कर ली जाती है। इस प्रकार अध्ययनकर्ता को इन उत्तरों के द्वारा बाल-जीवन की अनेक विशेषताओं का पता चल जाता है।
प्रश्नावली विधि अनुसन्धान कार्य में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। इस विधि द्वारा सम्य की बहुत बचत होती है। थोड़े से समय में बहुत से बालकों को परीक्षा सम्भव है। इसके अतिरिक्त इस विधि द्वारा शिक्षकों तथा अभिभावकों द्वारा प्रश्न पूछकर बालकों के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रश्नावली-विधि आधुनिक समय की एक अत्यन्त सरल, उपयोगी और लोकप्रिय विधि है।
इतनी विशेषताओं के होते हुए भी प्रश्नावली-विधि पूर्णतः दोषमुक्त नहीं है। यदि अध्ययनकर्ता ने सफलतापूर्वक प्रश्नों की सूची न तैयार की तो वांछित जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकती। की सबसे बड़ी विशेषता यह होनी चाहिये कि वे उन्हीं समस्याओं से सम्बन्धित हों जिनकी खोज उनके द्वारा की जा रही है। साथ ही उनकी भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए। यह सब अध्ययनकर्ता का उत्तरदायित्व है। प्रश्नावली वैज्ञानिक ढंग से तैयार किये जाने के बाद भी कुछ कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं। जहाँ तक संरक्षकों और शिक्षकों द्वारा दिये गये उत्तरों का प्रश्न है, वे अपने बालकों के सम्बन्ध में पक्षपात और पूर्वामहों के शिकार हो सकते हैं। फलस्वरूप प्रश्नावली-विधि का प्रयोग स्वभावतः सीमित हो जाता है। प्रश्नों की सबसे
4. मानसिक मापन विधि (Psychometric Method) - प्रश्नावली-विधि से हो मिलती-जुलती मानसिक मापन-विधि भी बाल-मनोविज्ञान की एक अत्यन्त प्रसिद्द विधि है, इस विधि को परीक्षण विधि भी कहा जाता है। बाल-मनोविज्ञान में इस विधि का इतना अधिक प्रचलन है कि मानसिक परीक्षा मनोविज्ञान की एक विशिष्ट शाखा के रूप में विकसित हो चुकी है। मानसिक मापन विधि का जन्मदाता डाल्टन को माना जाता है, परन्तु इसका पूर्ण विकास वर्तमान शताब्दी में हुआ। फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिक अल्फ्रेड विने ने 1905 ई. में बुद्धि परीक्षणों का निर्माण करके बालकों की बौद्धिक का पता लगाया। उनके द्वारा बनाए गये मार्ग पर चलकर विशिष्ट योग्यता, ज्ञान, व्यक्तित्व, चरित्र, स्वभाव, अभिरुचि तथा समायोजन आदि से सम्बन्धित परीक्षण बनाए गए । इन परीक्षणों से बालकों की प्रायः सभी मानसिक क्षमताओं का वैज्ञानिक अध्ययन हो जाता है। मानसिक मापन विधि की अपनी अनेक विशेषताएँ होती हैं। मापन कार्य में समय की बचत, मापन विधि की सरलता, परीक्षाफलों की वस्तुनिष्ठता, सत्यता तथा विश्वसनीयता आदि इस विधि की मुख्य विशेषताएँ मानी जाती हैं, परन्तु यह बातें तभी सम्भव हैं, जब परीक्षणों को प्रमाणिक बनाया जाय। अतः प्रश्नावली विधि की भाँति इस विधि में भी अध्ययनकर्ता को प्रश्नों के चुनाव तथा उनकी भाषा आदि के विषय में सतर्कता से काम लेना आवश्यक है।
5. नियन्त्रित निरीक्षण विधि (Controlled Observation Method) – जब कोई बाल-मनोवैज्ञानिक बालकों की स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं का निरीक्षण नियन्त्रित वातावरण में करता है और उनका लेखा रखता है तथा उनसे कोई निष्कर्ष निकालता है तो इस प्रणाली की नियन्त्रित निरीक्षण विधि प्रयोगात्मक विधि से भिन्न होती है। नियन्त्रित निरीक्षण विधि मेंबालकों के जिन व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, वे बिल्कुल स्वाभाविक होते हैं। केवल परिस्थितियाँ आवश्यकतानुसार व्यवस्थित एवं नियन्त्रित कर दें कर दी जाती हैं, जिससे बालक अपने स्वाभाविक व्यवहार बिना किसी संकोच के प्रदर्शित कर सके और इन व्यवहारों का उचित ढंग से निरीक्षण किया जा सके। प्रयोगात्मक विधि में केवल वातावरण को ही नहीं, बल्कि बालक द्वारा प्रदर्शित व्यवहार को भी नियन्त्रित किया जाता है।
नियन्त्रित निरीक्षण विधि का उपयोग विशेष रूप से छोटे बालकों के अध्ययन के लिए किया जाता ता है। इस विधि को यदि बाल-मनोविज्ञान की सबसे सुन्दर और वैज्ञानिक विधि माना जाय तो अतिशयोक्ति न होगी।
नियन्त्रित निरीक्षण विधि बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन की एक अत्यन्त व्यापक विधि है, इस विधि के प्रयोग में मनोवैज्ञानिकों ने अलग-अलग दृष्टिकोणों से निरीक्षण के लिये अनेक विशिष्ट प्रणालियों को अपनाया है। इ बाल-व्यवहार के इस प्रणाली द्वारा अध्ययनकर्ता बालक के कुछ चुने हुए व्यवहारों का अध्ययन निश्चित समयों पर बार-बार करता है। किसी व्यवहार का निरीक्षण बार-बार करने से निष्कर्षों की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। साथ ही इस विधि में समय और श्रम भी कम व्यय होता है। स्पष्ट है कि इस प्रणाली का उद्देश्य किसी विशिष्ट व्यवहार के उद्भव, विकास तथा अन्त से सम्बन्धित सभी घटनाओं का विस्तारपूर्वक निरीक्षण करना होता है, परन्तु निरीक्षणकर्ता कभी बालक को यह पता नहीं चलने देता है कि वह उसके अमुक व्यवहारों का निरीक्षण कर रहा है। इसीलिये वह किसी ऐसे स्थान पर अपने बैठने का स्थान बनाता है, जहाँ से वह चालक को तो देख सके, लेकिन बालक निरीक्षणकर्ता को न देख सके। बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन में इस प्रणाली की काफी उपयोगिता है, क्योंकि
प्रत्येक व्यवहार का उसकी अपनी स्वाभाविक पृष्ठभूमि में अध्ययन किया जाता है।
6. प्रयोग विधि (Experiment Method) बाल-मनोविज्ञान से सम्बन्धित अनेक
समस्याओं का अध्ययन प्रयोग विधि द्वारा किया जाना सम्भव है। बालकों के अध्ययन में प्रयोगों की जो रूपरेखा तैयार की जाती है उसमें बालक के किसी विशिष्ट व्यवहार का सम्बन्ध वातावरण के किसी तत्त्व विशेष से जोड़ने की योग्यता होती है। प्रयोगकर्ता स्वतन्त्र चलराशि में क्रमिक परिवर्तन उत्पन्न करता है, जिसके फलस्वरूप बालक के व्यवहार में भी विशेष परिवर्तन दिखलायी पड़ने लगते हैं। ऐसा होने पर वह स्वतन्त्र चलराशि और आश्रित चलराशि के बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध स्थापित करता है।
प्रयोगकर्ता के अपने अध्ययनों में वांछित मात्रा में नियन्त्रण स्थापित करने के लिये यह आवश्यक है कि प्रयोग का अभिकल्प सावधानीपूर्वक किया जाय।
बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन में प्रायः निम्नांकित दो प्रकार की योजनाएँ प्रयोग में लायों जाती हैं
(1) समीकृत समूहों डों की विधि, (2) १) युगल यमज नियन्त्रण विधि। समीकृत समूहों को विधि का प्रयोग बाल-समूहों के साथ किया जाता है। सर्वप्रथम बाल-समूहों को इस प्रकार दो वर्गों में विभक्त किया जाता है, जिससे दोनों समूहों में समान क्षमता के बालक आ जायें। इसके पश्चात् एक समूह पर किसी तत्व विशेष का प्रभाव डालते हैं और दूसरे पर उस तत्त्व का कोई प्रभाव नहीं डालते। जो समूह इस प्रकार प्रभावित किया जाता है, उसे प्रयोगात्मक समूह तथा दूसरे को नियन्त्रित समूह कहा जाता है। नियन्त्रित समूह का उपयोग केवल तुलना के लिये किया जाता है।
युगल यमज नियन्त्रण विधि में दो जुड़वाँ बालकों की तुलना की जाती है। बाल- मनोविज्ञान में जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन इस दृष्टि से किया जाता है क्योंकि उन्हें समान
-आनुवंशिकता प्राप्त हुई होती है। ऐसी दिशा में यदि उनके भीतर कोई अन्तर दिखलायी पड़ता है तो वह वातावरण को भिन्नता के कारण होगा।
बालकों की जिन क्षमताओं का अध्ययन प्रयोग विधि द्वारा किया गया है उनमें शिक्षण, सम्बद्धता, विभेदीकरण, प्रेरणा तथा परिपक्वता मुख्य हैं। नवजात शिशुओं तथा छोटे बालकों की संवेदनात्मक क्षमताओं तथा संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन भी प्रयोगात्मक विधि द्वारा किया गया है।
7. व्यक्तिगत निदान विधि (Clinical Case Study Method) - व्यक्तिगत निदान विधि का उपयोग विशेषतः असामान्य एवं असन्तुलित बालकों की समायोजन की समस्याओं और कठिनाइयों को समझने के लिए किया जाता है। बालकों की समस्या का समुचित अध्ययन इसी विधि द्वारा किया जाता है। इस विधि द्वारा बालक को विभिन्न परिस्थितियों में रखकर उसकी व्यक्तिगत समस्याओं का निदान किया जाता है।
व्यक्तिगत निदान विधि का परिष्कृत रूप क्रीड़ा-चिकित्सा है। क्रीड़ा-चिकित्सा का प्रयोग सबसे प्रथम बार डॉ. फ्रायड की सुपुत्री अन्ना फ्रॉयड ने किया था। आधुनिक बाल-मनोवैज्ञानिकों ने तो तो खेल-चिकित्सा को एक प्रकार का प्रक्षेपण माना है, जिसमें बालक अपनी रुचियों, इच्छाओं, पसन्दगियों तथा कल्पनाओं को व्यक्त करता है। खेल की वस्तुओं के समक्ष वह अपनी भावनाओं और संवेगों को प्रदर्शित करता है। अतः खेलते हुए बालक के निरीक्षण से उसके व्यक्तित्व के अनेक गुण-दोषों को सफलतापूर्वक समझा जा सकता है।
परन्तु व्यक्तिगत निदान विधि तभी सफल होती है, जब बालकों का अध्ययन करते समय हमें उनकी पूरी जानकारी हो। इस जानकारी में उनकी शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों तथा संवेगात्मक दशाओं के साथ-साथ उनके परिवार की सामाजिक आर्थिक दशाओं का वर्णन भी सम्मिलित होना चाहिये। ऐसा होने पर इस विधि का सफल प्रयोग सम्भव है। इसके अतिरिक्त इस विधि द्वारा बाल-अध्ययन करने में चिकित्सक को धैर्य से काम लेना पड़ता है तथा समय भी बहुत अधिक व्यय होता है। इस विधि द्वारा केवल असन्तुलित बालकों का ही अध्ययन सम्भव है, सामान्य बालकों के अध्ययन में इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता।
8. अन्तः निरीक्षण विधि (Introspection Method) अन्तः-निरीक्षण का अर्य है- अपने भीतर देखना अर्थात् मानसिक अवस्थाओं और अनुभूतियों का अध्ययन स्वयं करना। इस विधि के द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक क्रियाओं का विश्लेषण करके उन्हें समझने का प्रयास करता है। यह विधि प्रौढ़ों के लिए अधिक उपयुक्त है, परन्तु बाल-मनोविज्ञान में भी इसका गौण रूप से उपयोग किया जाता है।
भारत में यह विधि प्राचीन काल से है। महर्षि पतंजलि ने योग-सूत्र में कहा है- 'योगाश्विन्त वृत्ति निरोधः' अर्थात् योग के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध किया जा सकता है। योग के द्वारा योगी अन्तर्निरीक्षण करता है। क्रोध की अवस्था में वह क्रोध के संवेग का अनुभव तो करता है, पर उस संवेग पर विचार भी करता है, जो व्यक्ति अपने मन को भली-भाँति नहीं समझ सकता, वह बालक को क्या समझायेगा ?
9. तुलना विधि (Comparison Method)- बालकों और जानवरों के व्यवहार का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है। दोनों में मूल प्रवृत्तियाँ समान होती हैं। इन प्रयोगों से बालकों के सम्बन्ध में भी अनेक बातें जानी जा सकती हैं। इसी तथ्य को सामने रखकर थार्नडाइक ने पशुओं पर अनेक प्रयोग किये हैं। इन प्रयोगों ने बाल-शिक्षा को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है।
10.मनोविश्लेषण विधि (Psycho-analysis Method) - इस विधि के द्वारा मनुष्य के चेतन के साथ-साथ अचेतन मन का भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इस विधि में प्रयोगकर्ता को मोह-निद्रा और सम्मोहन क्रिया का ज्ञान होना चाहिए। बालक को मोह-निद्रा में सुलाकर उसकी अव्यक्त इच्छाओं तथा वासनाओं का पता लगाया जाता है। इस विधि से समस्यात्मक बालकों का निदान किया जा सकता है। फ्रॉयड को इस विधि का प्रवर्तक मानते हैं।
11. सांख्यिकीय विधि (Statistical Method)- इस विधि में संख्याओं या आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है। ठीक-ठीक मानदण्ड निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित संख्याओं का प्रयोग किया जाता है-
(अ) मध्यमान (Mean)- किसी विषय की परीक्षा में प्राप्तांक को जोड़कर परीक्षार्थियों की संख्या से भाग देने से जो परिणाम उपलब्ध होता है, वह मध्यमान साधारण नियम और सामान्य योग्यता की ओर संकेत करता है। बालक का स्थान मध्यमान से जितना ऊपर या नीचे होता है, वह उतना ही कुशाम या मन्द बुद्धि का होता है।
(ब) पध्यांक (Median) - परीक्षार्थियों के परीक्षाफल को क्रमानुसार रखने पर जो अंक मध्य स्थान में पड़ता है, वह मध्यांक कहलाता है।
(स) बहुलांक (Mode) किसी विषय की परीक्षा के पश्चात् परीक्षाफल में जो अंक सबसे अधिक बार आता है, उसे बहुलांक कहते हैं।
परिगणत विधि से व्यक्तिगत भिन्नता को मापा जा सकता है और तुलनात्मक अध्ययन के लिए मानदण्ड निर्धारित किया जाता है। यद्यपि मनोविज्ञान के क्षेत्र में उपर्युक्त तीनों आँकड़ों का प्रयोग किया जाता है परन्तु प्रमाणिकता की दृष्टि से मध्यमान पर ही अधिक विश्वास किया जाता है।
12. साक्षात्कार विधि (Interview Method)- इस विधि के अनुसार मनोवैज्ञानिक बालक से उसके अभिभावक अथवा अध्यापक से साक्षात्कार करता है। साक्षात्कार के समय वह कुछ प्रश्नों को पूछता है और जो सूचनाएँ उसे प्राप्त होती हैं, उन्हें वह लिपिवद्ध कर निष्कर्ष निकालता है। इस विधि में मनोवैज्ञानिक को कोई पूर्वामह नहीं बनाना चाहिए।
13. प्रक्षेपण विधि (Projective Method)- इस विधि में हम बालक को किसी बाह्य पदार्थ के सहारे अपने विचार प्रक्षेप प्रक्षेप (Project) करने को कहते हैं। बालक अथवा बालिका किसी चित्र या स्याही के धब्बे को देखकर एक कहानी बनाते हैं अथवा उनके मन में जो विचार आते हैं, उन्हें लिखते जाते हैं। इस प्रकार उनके आन्तरिक विचारों को जाता है। बाहर खींचा
14. मापनी रेखा विधि (Rating Scale Method)- मापन रेखा वह विधि है, जो व्यक्तित्व के गुणों गों का अनुमान लगाने के लिए होती है। बालकों के व्यक्तित्व की सभी विशेषताएँ मापन रेखा द्वारा पता लग सकती हैं। साधारण रूप में मापन हाँ, ना उत्तरों के रूप में होता है। मापन रेखा पर प्राप्त अंकों को हम प्रतिशत द्वारा प्रकट करते हैं। इस विधि में सबसे बड़ा दोष यह है कि निरीक्षक अपने व्यक्तित्व के आधार पर दूसरे के व्यक्तित्व को देखने का प्रयास करता है। यदि हम भिन्न-भिन्न निरीक्षकों के मतों को एक साथ एकत्र कर दें तो हमारे निष्कर्षों में अधिक यथार्थता आ सकती है।
15. मनोनीत विधि (Chosen Method)- इस विधि द्वारा छात्रों की बुद्धि, शैक्षणिक योग्यता, अभिरुचि तया व्यक्तित्व आदि के सम्बन्ध में अध्ययन किया जाता है, इस समय प्रचलन में अनेक प्रकार के परीक्षण हैं। यह सभी परीक्षण प्रमाणीकृत हैं। उनके द्वारा नियन्त्रित वातावरण में छात्रों का अध्ययन किया जाता है।
दीर्घकालीन एवं समकालीन अध्ययन विधियाँ
बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों ने मुख्यतः दो प्रणालियों का प्रयोग किया है। इनमें से एक को दीर्घकालीन तथा दूसरी को समकालीन अध्ययन प्रणाली को संत्रा दी जा सकती है। कुछ बाल-मनोवैज्ञानिक जो दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली का प्रयोग करते हैं उनका उद्देश्य व्यक्तिगत स्तर पर बालकों की क्षमताओं का गहन अध्ययन करके विकास को गति की समुचित जानकारी प्राप्त करना होता है। इसके विपरीत जो बाल-मनोवैज्ञानिकः समकालीन अध्ययन प्रणाली का प्रयोग करते हैं, वे बालकों के बड़े-बड़े समूहों का निरीक्षण करते हैं और प्राप्त परिणामों के आधार पर विशिष्ट अवस्थाओं में पायी जाने वाली विशेषताओं का पता लगाते हैं।
उपर्युक्त दोनों अध्ययन प्रणालियों की अपनी-अपनी उपयोगिताएँ और सीमाएँ हैं। दीर्घकालीन प्रणाली समकालीन प्रणाली की तुलना में अधिक कठिन, खर्चीली तथा अधिक श्रम और समय लेने वाली सिद्ध हुई है। समकालीन अध्ययन प्रणाली की दो मुख्य उपयोगिताएँ स्वीकार की जा चुकी हैं। प्रथम तो यह है कि इस विधि द्वारा अल्प समय में ही विभिन्न बाल-समूहों का अध्ययन सम्भव है। अतः समय और श्रम कम लगता है। इसकी द्वितीय उपयोगिता है कि बड़े-बड़े बाल-समूहों का अध्ययन करके प्रत्येक अवस्था के लिए प्रतिमान कौ स्थापना की जा सकती है।
Image by Pete Linforth from Pixabay
प्रयोगकर्ता के अपने अध्ययनों में वांछित मात्रा में नियन्त्रण स्थापित करने के लिये यह आवश्यक है कि प्रयोग का अभिकल्प सावधानीपूर्वक किया जाय।
बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन में प्रायः निम्नांकित दो प्रकार की योजनाएँ प्रयोग में लायों जाती हैं
(1) समीकृत समूहों डों की विधि, (2) १) युगल यमज नियन्त्रण विधि। समीकृत समूहों को विधि का प्रयोग बाल-समूहों के साथ किया जाता है। सर्वप्रथम बाल-समूहों को इस प्रकार दो वर्गों में विभक्त किया जाता है, जिससे दोनों समूहों में समान क्षमता के बालक आ जायें। इसके पश्चात् एक समूह पर किसी तत्व विशेष का प्रभाव डालते हैं और दूसरे पर उस तत्त्व का कोई प्रभाव नहीं डालते। जो समूह इस प्रकार प्रभावित किया जाता है, उसे प्रयोगात्मक समूह तथा दूसरे को नियन्त्रित समूह कहा जाता है। नियन्त्रित समूह का उपयोग केवल तुलना के लिये किया जाता है।
युगल यमज नियन्त्रण विधि में दो जुड़वाँ बालकों की तुलना की जाती है। बाल- मनोविज्ञान में जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन इस दृष्टि से किया जाता है क्योंकि उन्हें समान
-आनुवंशिकता प्राप्त हुई होती है। ऐसी दिशा में यदि उनके भीतर कोई अन्तर दिखलायी पड़ता है तो वह वातावरण को भिन्नता के कारण होगा।
बालकों की जिन क्षमताओं का अध्ययन प्रयोग विधि द्वारा किया गया है उनमें शिक्षण, सम्बद्धता, विभेदीकरण, प्रेरणा तथा परिपक्वता मुख्य हैं। नवजात शिशुओं तथा छोटे बालकों की संवेदनात्मक क्षमताओं तथा संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन भी प्रयोगात्मक विधि द्वारा किया गया है।
7. व्यक्तिगत निदान विधि (Clinical Case Study Method) - व्यक्तिगत निदान विधि का उपयोग विशेषतः असामान्य एवं असन्तुलित बालकों की समायोजन की समस्याओं और कठिनाइयों को समझने के लिए किया जाता है। बालकों की समस्या का समुचित अध्ययन इसी विधि द्वारा किया जाता है। इस विधि द्वारा बालक को विभिन्न परिस्थितियों में रखकर उसकी व्यक्तिगत समस्याओं का निदान किया जाता है।
व्यक्तिगत निदान विधि का परिष्कृत रूप क्रीड़ा-चिकित्सा है। क्रीड़ा-चिकित्सा का प्रयोग सबसे प्रथम बार डॉ. फ्रायड की सुपुत्री अन्ना फ्रॉयड ने किया था। आधुनिक बाल-मनोवैज्ञानिकों ने तो तो खेल-चिकित्सा को एक प्रकार का प्रक्षेपण माना है, जिसमें बालक अपनी रुचियों, इच्छाओं, पसन्दगियों तथा कल्पनाओं को व्यक्त करता है। खेल की वस्तुओं के समक्ष वह अपनी भावनाओं और संवेगों को प्रदर्शित करता है। अतः खेलते हुए बालक के निरीक्षण से उसके व्यक्तित्व के अनेक गुण-दोषों को सफलतापूर्वक समझा जा सकता है।
परन्तु व्यक्तिगत निदान विधि तभी सफल होती है, जब बालकों का अध्ययन करते समय हमें उनकी पूरी जानकारी हो। इस जानकारी में उनकी शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों तथा संवेगात्मक दशाओं के साथ-साथ उनके परिवार की सामाजिक आर्थिक दशाओं का वर्णन भी सम्मिलित होना चाहिये। ऐसा होने पर इस विधि का सफल प्रयोग सम्भव है। इसके अतिरिक्त इस विधि द्वारा बाल-अध्ययन करने में चिकित्सक को धैर्य से काम लेना पड़ता है तथा समय भी बहुत अधिक व्यय होता है। इस विधि द्वारा केवल असन्तुलित बालकों का ही अध्ययन सम्भव है, सामान्य बालकों के अध्ययन में इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता।
8. अन्तः निरीक्षण विधि (Introspection Method) अन्तः-निरीक्षण का अर्य है- अपने भीतर देखना अर्थात् मानसिक अवस्थाओं और अनुभूतियों का अध्ययन स्वयं करना। इस विधि के द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक क्रियाओं का विश्लेषण करके उन्हें समझने का प्रयास करता है। यह विधि प्रौढ़ों के लिए अधिक उपयुक्त है, परन्तु बाल-मनोविज्ञान में भी इसका गौण रूप से उपयोग किया जाता है।
भारत में यह विधि प्राचीन काल से है। महर्षि पतंजलि ने योग-सूत्र में कहा है- 'योगाश्विन्त वृत्ति निरोधः' अर्थात् योग के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध किया जा सकता है। योग के द्वारा योगी अन्तर्निरीक्षण करता है। क्रोध की अवस्था में वह क्रोध के संवेग का अनुभव तो करता है, पर उस संवेग पर विचार भी करता है, जो व्यक्ति अपने मन को भली-भाँति नहीं समझ सकता, वह बालक को क्या समझायेगा ?
9. तुलना विधि (Comparison Method)- बालकों और जानवरों के व्यवहार का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है। दोनों में मूल प्रवृत्तियाँ समान होती हैं। इन प्रयोगों से बालकों के सम्बन्ध में भी अनेक बातें जानी जा सकती हैं। इसी तथ्य को सामने रखकर थार्नडाइक ने पशुओं पर अनेक प्रयोग किये हैं। इन प्रयोगों ने बाल-शिक्षा को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है।
10.मनोविश्लेषण विधि (Psycho-analysis Method) - इस विधि के द्वारा मनुष्य के चेतन के साथ-साथ अचेतन मन का भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इस विधि में प्रयोगकर्ता को मोह-निद्रा और सम्मोहन क्रिया का ज्ञान होना चाहिए। बालक को मोह-निद्रा में सुलाकर उसकी अव्यक्त इच्छाओं तथा वासनाओं का पता लगाया जाता है। इस विधि से समस्यात्मक बालकों का निदान किया जा सकता है। फ्रॉयड को इस विधि का प्रवर्तक मानते हैं।
11. सांख्यिकीय विधि (Statistical Method)- इस विधि में संख्याओं या आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है। ठीक-ठीक मानदण्ड निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित संख्याओं का प्रयोग किया जाता है-
(अ) मध्यमान (Mean)- किसी विषय की परीक्षा में प्राप्तांक को जोड़कर परीक्षार्थियों की संख्या से भाग देने से जो परिणाम उपलब्ध होता है, वह मध्यमान साधारण नियम और सामान्य योग्यता की ओर संकेत करता है। बालक का स्थान मध्यमान से जितना ऊपर या नीचे होता है, वह उतना ही कुशाम या मन्द बुद्धि का होता है।
(ब) पध्यांक (Median) - परीक्षार्थियों के परीक्षाफल को क्रमानुसार रखने पर जो अंक मध्य स्थान में पड़ता है, वह मध्यांक कहलाता है।
(स) बहुलांक (Mode) किसी विषय की परीक्षा के पश्चात् परीक्षाफल में जो अंक सबसे अधिक बार आता है, उसे बहुलांक कहते हैं।
परिगणत विधि से व्यक्तिगत भिन्नता को मापा जा सकता है और तुलनात्मक अध्ययन के लिए मानदण्ड निर्धारित किया जाता है। यद्यपि मनोविज्ञान के क्षेत्र में उपर्युक्त तीनों आँकड़ों का प्रयोग किया जाता है परन्तु प्रमाणिकता की दृष्टि से मध्यमान पर ही अधिक विश्वास किया जाता है।
12. साक्षात्कार विधि (Interview Method)- इस विधि के अनुसार मनोवैज्ञानिक बालक से उसके अभिभावक अथवा अध्यापक से साक्षात्कार करता है। साक्षात्कार के समय वह कुछ प्रश्नों को पूछता है और जो सूचनाएँ उसे प्राप्त होती हैं, उन्हें वह लिपिवद्ध कर निष्कर्ष निकालता है। इस विधि में मनोवैज्ञानिक को कोई पूर्वामह नहीं बनाना चाहिए।
13. प्रक्षेपण विधि (Projective Method)- इस विधि में हम बालक को किसी बाह्य पदार्थ के सहारे अपने विचार प्रक्षेप प्रक्षेप (Project) करने को कहते हैं। बालक अथवा बालिका किसी चित्र या स्याही के धब्बे को देखकर एक कहानी बनाते हैं अथवा उनके मन में जो विचार आते हैं, उन्हें लिखते जाते हैं। इस प्रकार उनके आन्तरिक विचारों को जाता है। बाहर खींचा
14. मापनी रेखा विधि (Rating Scale Method)- मापन रेखा वह विधि है, जो व्यक्तित्व के गुणों गों का अनुमान लगाने के लिए होती है। बालकों के व्यक्तित्व की सभी विशेषताएँ मापन रेखा द्वारा पता लग सकती हैं। साधारण रूप में मापन हाँ, ना उत्तरों के रूप में होता है। मापन रेखा पर प्राप्त अंकों को हम प्रतिशत द्वारा प्रकट करते हैं। इस विधि में सबसे बड़ा दोष यह है कि निरीक्षक अपने व्यक्तित्व के आधार पर दूसरे के व्यक्तित्व को देखने का प्रयास करता है। यदि हम भिन्न-भिन्न निरीक्षकों के मतों को एक साथ एकत्र कर दें तो हमारे निष्कर्षों में अधिक यथार्थता आ सकती है।
15. मनोनीत विधि (Chosen Method)- इस विधि द्वारा छात्रों की बुद्धि, शैक्षणिक योग्यता, अभिरुचि तया व्यक्तित्व आदि के सम्बन्ध में अध्ययन किया जाता है, इस समय प्रचलन में अनेक प्रकार के परीक्षण हैं। यह सभी परीक्षण प्रमाणीकृत हैं। उनके द्वारा नियन्त्रित वातावरण में छात्रों का अध्ययन किया जाता है।
दीर्घकालीन एवं समकालीन अध्ययन विधियाँ
बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों ने मुख्यतः दो प्रणालियों का प्रयोग किया है। इनमें से एक को दीर्घकालीन तथा दूसरी को समकालीन अध्ययन प्रणाली को संत्रा दी जा सकती है। कुछ बाल-मनोवैज्ञानिक जो दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली का प्रयोग करते हैं उनका उद्देश्य व्यक्तिगत स्तर पर बालकों की क्षमताओं का गहन अध्ययन करके विकास को गति की समुचित जानकारी प्राप्त करना होता है। इसके विपरीत जो बाल-मनोवैज्ञानिकः समकालीन अध्ययन प्रणाली का प्रयोग करते हैं, वे बालकों के बड़े-बड़े समूहों का निरीक्षण करते हैं और प्राप्त परिणामों के आधार पर विशिष्ट अवस्थाओं में पायी जाने वाली विशेषताओं का पता लगाते हैं।
उपर्युक्त दोनों अध्ययन प्रणालियों की अपनी-अपनी उपयोगिताएँ और सीमाएँ हैं। दीर्घकालीन प्रणाली समकालीन प्रणाली की तुलना में अधिक कठिन, खर्चीली तथा अधिक श्रम और समय लेने वाली सिद्ध हुई है। समकालीन अध्ययन प्रणाली की दो मुख्य उपयोगिताएँ स्वीकार की जा चुकी हैं। प्रथम तो यह है कि इस विधि द्वारा अल्प समय में ही विभिन्न बाल-समूहों का अध्ययन सम्भव है। अतः समय और श्रम कम लगता है। इसकी द्वितीय उपयोगिता है कि बड़े-बड़े बाल-समूहों का अध्ययन करके प्रत्येक अवस्था के लिए प्रतिमान कौ स्थापना की जा सकती है।
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